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त्वया॑ व॒यं स॑ध॒न्य१॒॑स्त्वोता॒स्तव॒ प्रणी॑त्यश्याम॒ वाजा॑न्। उ॒भा शंसा॑ सूदय सत्यतातेऽनुष्ठु॒या कृ॑णुह्यह्रयाण ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvayā vayaṁ sadhanyas tvotās tava praṇīty aśyāma vājān | ubhā śaṁsā sūdaya satyatāte nuṣṭhuyā kṛṇuhy ahrayāṇa ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वया॑। व॒यम्। स॒ऽध॒न्यः॑। त्वाऽऊ॑ताः। तव॑। प्रऽनी॑ती। अ॒श्या॒म॒। वाजा॑न्। उ॒भा। शंसा॑। सू॒द॒य॒। स॒त्य॒ऽता॒ते॒। अ॒नु॒ष्ठु॒या। कृ॒णु॒हि॒। अ॒ह्र॒या॒ण॒॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:4» मन्त्र:14 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:25» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रकारान्तर से राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अह्रयाण) लज्जारहित (सत्यताते) सत्य आचरण करनेवाले राजन् ! आप (अनुष्ठुया) अनुकूलता से (उभा) दोनों (शंसा) प्रशंसाओं को (कृणुहि) करिये और दोषों का (सूदय) नाश करिये जिससे (त्वया) आपके साथ (त्वोताः) आपने पालन किये और (सधन्यः) तुल्य धनवाले हुए (वयम्) हम लोग (तव) आपकी (प्रणीती) उत्तम नीति से (वाजान्) विज्ञान और धन आदि पदार्थों को (अश्याम) प्राप्त होवें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - सब नौकरों को चाहिये कि राजा के साथ मित्रता और राजा को चाहिये कि सब लोगों के साथ पिता के सदृश वर्त्ताव रखे और परस्पर एक-दूसरे की प्रशंसा कर दोषों का नाश और सत्यनीति का प्रचार करके जिस-जिस कर्म्म में लज्जा हो, उस उसका त्यागकर चक्रवर्त्ती राज्य का भोग करें ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रकारान्तरेण राजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे अह्रयाण सत्यताते राजंस्त्वमनुष्ठुया उभा शंसा कृणुहि दोषान्त्सूदय यतस्स्वया सह त्वोताः सधन्यः सन्तो वयं तव प्रणीती वाजानश्याम ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वया) स्वामिना राज्ञा (वयम्) (सधन्यः) समानं धनं विद्यते येषान्ते। अत्र मत्वर्थीय ईप्। (त्वोताः) त्वया पालिताः (तव) (प्रणीती) प्रकृष्टनीत्या (अश्याम) प्राप्नुयाम (वाजान्) विज्ञानधनादिपदार्थान् (उभा) उभौ (शंसा) प्रशंसे (सूदय) क्षरय (सत्यताते) सत्याचरक (अनुष्ठुया) आनुकूल्येन (कृणुहि) (अह्रयाण) लज्जारहित ॥१४॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्भृत्यै राज्ञा सह मित्रता राज्ञा च सर्वैस्सह पितृवद्भावो रक्षणीयोऽन्येषां प्रशंसां कृत्वा दोषान् विनाश्य सत्यनीतिं प्रचार्य्य यत्र यत्र कर्मणि लज्जा स्यात्तत्तद्विहाय साम्राज्यं भोक्तव्यम् ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व सेवकांनी राजाबरोबर मैत्री करावी व राजाने सर्व लोकांबरोबर पित्याप्रमाणे वर्तन करावे व परस्पर एकमेकांची प्रशंसा करून दोषांचा नाश व सत्य नीतीचा प्रचार करून ज्या ज्या कर्माची लाज वाटेल, त्याचा त्याग करून चक्रवर्ती राज्य भोगावे. ॥ १४ ॥